हम और हमारी ख़्वाहिश
आपको पाने की ख़्वाहिश रखी थी हम ने
मगर आप तो नहीं रहे
लेकिन ख़्वाहिश, वही हैं
खड़ी होगी उसी भीड़ में कहीं
जहाँ आपको हमने पहेली बार देखा था
नजरों से नजरें मिली थी
यादों के धागे बुने थे
'सलीम -की-चाय' के पास
ये ख़्वाहिश भी कमबख़्त हैं बहुत
हमसे काफीर होकर
आपको मिलने की कोशिश करती हैं
घर याद हैं आपका उसें
लेकिन रास्ता भूल चुकी हैं
छोड़ो, क्यूँ हुआ ? कैसे हुआ ?
ये पूछने में दिलचस्पी नहीं हैं
अब खामोशियाँ महसूस कर लेते हैं हम भी
अनजान होकर चलते हैं
हम और हमारी ख़्वाहिश
Very nice👍
ReplyDeleteThank you
DeleteNice
ReplyDeleteNice try....
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